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दिवाली पर खूब जले दीप-पटाखे, हुई आतिशबाजी, स्कंदपुराण में कृष्ण ने दीयों को बताया सूर्य का अंश

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दिवाली पर खूब जले दीप-पटाखे, हुई आतिशबाजी, स्कंदपुराण में कृष्ण ने दीयों को बताया सूर्य का अंश, कृष्ण विवाह में आतिशबाजी का जिक्र, 5000 साल पहले रॉकेट के प्रमाण, कौटिल्य ने 2400 वर्ष पूर्व ही खोज लिया था पटाखों में भरने वाला बारूद, बाद में मुगलों ने पॉपुलर बनाया-चीन ने दुनिया मे फैलाया

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दीपों का त्योहार दिवाली कार्तिक माह में कृष्णपक्ष की त्रयोदशी से लेकर भाई दूज तक मनाया जाता है, लेकिन ये रिवाज नया नहीं है. 5 दिन तक दिवाली मनाने की परंपरा त्रेतायुग के बाद द्वापर युग से चली आ रही है. कल दिवाली सन्ध्या पर भी देश ही नही विदेशों में भी चहुंओर दीप से जगमग दिखाई दिए. लोग खुशहाल नजर आए. फुलझड़ी-पटाखे फोड़े गए, जमकर आतिशबाजी हुई.

देश के जाने-माने इतिहासकार ललित मिश्र बताते हैं, स्कंदपुराण में श्रीकृष्ण ने मिट्टी के दीयों का महत्व बताया है. स्कंद पुराण के कार्तिक महात्म्य में कृष्ण बताते हैं कि अंधकार विनाशक मिट्टी के दीयों में सूर्य का अंश होता है. सबसे पहले मद्र राज्य के निवासियों ने दीपदान का उत्सव मनाना शुरू किया था, जिसकी जानकारी किसी तरह दैत्यराज बलि तक पहुंची तो वो हैरान रह गए, क्योंकि उस समय रात में प्रकाश किया जाना बिल्कुल नई घटना थी. बलि ने इस घटना के बाद से ही अपने राज्य में धूमधाम से दीपक जालाने का पर्व शुरू कर दिया. वामन अवतार त्रेतायुग के प्रारंभ में हुआ था, तब से अब तक दीपावली लगातार चलती आ रही है.

मद्र राज्य आज के उत्तर पंजाब और जम्मू को मिलाकर बनता था. आर्कियोलॉजिकली यह क्षेत्र इंडस वैली कल्चर का सीमावर्ती क्षेत्र रहा है. सिंधु घाटी सभ्यता से लगभग चौथी सहस्राब्दी ईसा पूर्व यानी 5000 से 6000 साल पहले से मिट्टी के दीये मिलने के प्रमाण हैं. यही वो समय था जब लोगों ने गो-पालन और कपास की खेती शुरू की थी. इसी प्रकार दीप जलाने से जुड़ी सभी जरूरी चीजें इस दौर में मौजूद थी यानी कि भारत में चौथी सहस्राब्दी ईसा पूर्व से दीये जलाए जाने लगे थे.

इंडोलॉजी फाउंडेशन संस्था भारतीय पुरातत्व से जुड़ी ऐतिहासिक इमारतों पर काम कर रही है. संस्था के एक अध्ययन के मुताबिक, स्कंदपुराण और अग्निपुराण के श्लोकों से हमें पता चलता है कि करीब 5000 साल पहले दिवाली की रात में हाथों में मशाल या फिर दूसरे पात्र जिससे चिंगारियां छोड़ते हुए ऊपर उठती थी, उनका प्रयोग दीपोत्सव के दौरान किया जाता था, जिसे ‘उल्काहस्त’ कहते थे. दीपावली आयोजन का एक पक्ष पितरों की प्रसन्नता से भी जुडा हुआ है. संकद पुराण के कार्तिकमास महात्म्य में श्लोक संख्या 09.65 के मुताबिक, अश्विन माह में पितृ लोक से आए हुये पितृ दीपावली में वापस जाते हैं, जिनकी वापसी पर ‘उल्काहस्तम’ नामक क्रिया होती थी.

375 BC यानी करीब 2,396 साल पहले कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के चौदहवें अध्याय में तेजनचूर्ण बनाने की विधि दी है. इसके बारे में शमशास्त्री संस्करण के पेज नंबर 592 में भी लिखा गया है. तेजनचूर्ण एक तरह का Ignition powder यानी कि बारूद था. करीब 2200 साल चीन के लुइयांग में पटाखे फोड़ने के सबूत मिलते हैं. ये पटाखे बांस की छड़ें होती थी, जिन्हें आग में डालने पर गांठ फटने की आवाज आती थी. मान्यता थी कि इसकी आवाज से बुरी आत्माएं-विचार और दुर्भाग्य भाग जाएंगे.

चीन के सैनिक पहाड़ से पीली रंग की मिट्टी एक बगीचे में डाल दिए. वहां पहले से कुछ कोयले पड़े थे. अगले दिन धूप निकलने के बाद वहां तेज धमाका हुआ. दरअसल वो पीली मिट्टी सल्फर थी जो पोटैशियम नाइट्रेट और चारकोल के साथ मिलकर बारूद बन गई. चीनियों से इस बारूद को बांस में भरकर पहली बार हैंडमेट पटाखे बनाए. 13-15 शताब्दी तक पटाखे चीन से निकल यूरोप-अरब-अमेरिका पहुंच गए. भारत मे अतिशबाजी के शुरुआती नोट्स अब्दुल रज्जाक के मिलते हैं. 1443 महानवमी त्योहार का वर्णन रज्जाक ने ही किया था. अतीश दीपंकर नाम के बंगाली बौद्ध धर्मगुरु ने चीन, तिब्बत और पूर्व एशिया की यात्रा से पटाखों के बारे मे सीखा और 12वीं सदी में ये विचार भारत मे आए. 1518 मे गुजरात में एक ब्राम्हण परिवार की शादी में जोरदार आतिशबाजी की गई थी. मराठी संतकवि एकनाथ की किताब में रुक्मिणी-कृष्ण के विवाह में आतिशबाजी की बात कही गई है.

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