28/06/2021

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बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का फैसला

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बहुजन समाज पार्टी की मुखिया का फैसला

Follow the government's guidelines: Mayawati
बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने घोषणा की है कि प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव उनकी पार्टी अकेले लड़ने जा रही है। दरअसल एक चैनल द्वारा ओवैसी की पार्टी से बसपा के गठबंधन की ख़बरों के बाद मायावती को स्पष्टीकरण देना पड़ा। मायावती ने यह भी कहा कि वे पंजाब और उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव में अवश्य गठबंधन कर चुकीं हैं और दोनों राज्यों में वे अन्य पार्टियों के साथ चुनाव में उतरेंगी। इस घोषणा के बाद उन कयासों पर विराम लग जाना चाहिए जिनमें बसपा के कभी एआईएमआईएम, तो कभी कांग्रेस या फिर बबुआ यानि अखिलेश की सपा के साथ गठजोड़ की खबरें आ रहीं थीं। अब यह सवाल उठ रहा है कि मायावती उप्र में किस आधार पर यह घोषणा कर रही है कि उप्र का चुनाव वे अकेले निपट लेंगी क्योंकि 17 के विधानसभा चुनाव में बसपा का वोट बैंक पूरी तरह दरक चुका है। यहां तक कि उनके पारंपरिक वोट बैंक समझे जाने वाले जाटव ने भी बसपा का साथ छोड़ दिया था। 17 में स्थिति यह बनी थी कि 3 बार प्रदेश की सत्ता संभाल चुकी मायावती की पार्टी के केवल 19 विधायक जीत कर आये थे और प्रदेश में तीसरे नंबर पर बहिन जी की पार्टी आई थी। तब मायावती ने घोषणा की थी कि पार्टी 5 साल तक कोई चुनाव नहीं लड़ेगी और पूरे पांच साल कैडर को मजबूत किया जायेगा। 5 साल होने को है और बसपा की हालत यह है कि उसके 19 में से 12 और विधायक या तो पार्टी से निष्कासित किए जा चुके हैं या उन्होंने ही पार्टी छोड़ दी है। यानि आज की स्थिति में बसपा केवल 7 विधायक वाली पार्टी है जो एक ऐसी पार्टी के लिए शर्मनाक है जिसने कभी राष्ट्रीय पार्टी होने का सपना देखा था। इन बीते साढ़े चार सालों में ऐसा भी नहीं लगा कि पार्टी अपने कथित कैडर पर काम कर रही है। वरन् चुनाव न लड़ने की घोषणा से कार्यकर्ताओं की ऊर्जा क्षय भी हुई। शायद यही कारण भी है कि अभी सम्पन्न हुए त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में पार्टी ने कहीं भी आशातीत सफलता अर्जित नहीं की। मायावती ने जब कभी भी उप्र चुनाव में भारी भरकम सफलताएं प्राप्त की तो उसके पीछे कारण तीन थे‌। एक तो बसपा का पारंपरिक वोट बैंक जो किसी भी स्थिति में कहीं और वोट नहीं करता था। यही बहिन जी का गुरुर भी था। सोशल इंजीनियरिंग फार्मूला और मुस्लिम वोट के सहारे पार्टी अन्य दलों पर भारी पड़ जाती थी। 17 के चुनावों की तरह इस बार भी मायावती की पार्टी में दलितों का वैसा रुझान तो समझ में नहीं आ रहा है जैसा हमेशा होता आया है। अन्य वर्गों को रिझाने में भी पार्टी अब तक कोई समीकरण पेश नहीं कर पाई है और न ही मुस्लिम वोट का झुकाव पार्टी की तरफ नजर आया है ऐसे में बसपा का अकेले चुनाव में उतरना कार्यकर्ताओं को भी असहज कर सकता है। अब तो बसपा पर भाजपा की बड़ी टीम होने के भी आरोप लग रहे हैं क्योंकि पिछले काफी समय से बजाय भाजपा पर हमलावर होने के पार्टी का झुकाव भाजपा की तरफ नजर आ रहा है। हो सकता है यह बहिन जी की कोई चुनावी रणनीति हो पर लोग यह कहने लगे हैं कि बहिन जी भविष्य में पार्टी का प्रदर्शन स्तरीय न होने पर उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार बनायीं जा सकती है। हालांकि फिलहाल इन कयासों पर कोई संभावना नहीं जताई जा सकती लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि मायावती को अगर 22 में अकेले दम पर उतरकर भाजपा जैसी फ़िलहाल सशक्त पार्टी और समाजवादी पार्टी की चुनौतियों का सामना करना है तो उसे एक निश्चित नीति लेकर आगे बढ़ना चाहिए। अखिलेश भी कह चुके हैं कि वे भी किसी बड़ी पार्टी के साथ गठजोड़ नहीं करेंगे लेकिन छोटी पार्टियों के साथ लड़ने में उन्हें कोई समस्या नहीं है। प्रियंका के नेतृत्व में कांग्रेस के प्रदर्शन में भी सुधार आने की संभावना जताई जा रही है। ऐसे में मायावती और बसपा को भावी प्रदर्शन के लिए शुभकामनाएं ही दी जा सकतीं हैं।

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