
वंदे मातरम् – यह नारा किसी गीत का नाम मात्र नहीं, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम की धड़कन था। लेकिन 1938 में मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने इसे मुस्लिम विरोधी बताते हुए कहा कि यह इस्लामिक भावनाओं को ठेस पहुँचाता है। इस आरोप के जवाब में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 6 अप्रैल 1938 को एक लंबा पत्र लिखकर न केवल तथ्य रखे, बल्कि वह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी स्पष्ट की जिसने तीन दशक तक इस गीत को आंदोलन की ऊर्जा बनाया था। यह संवाद हमें बताता है कि प्रतीकों को कैसे देखा गया था और आज उन्हें कैसे समझा जाना चाहिए।
‘वंदे मातरम्’ का जन्म और राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ाव
1870 के दशक में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘आनंदमठ’ में वंदे मातरम् की रचना की। यह एक मातृभूमि-स्तुति थी- धर्मग्रंथ नहीं। जैसे-जैसे ब्रिटिश दमन बढ़ा, यह गीत बंगाल की जनता के दिल में आग बनकर धधकने लगा।
1905 में लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन के निर्णय ने पूरे भारत को झकझोर दिया। यही वह क्षण था जब वंदे मातरम् राष्ट्रव्यापी जन-आंदोलन का नारा बना। स्कूलों, बाजारों, सभाओं, सत्याग्रहों और ब्रिटिश विरोधी जुलूसों में यह गीत गूंजता रहा।
लाला लाजपत राय, अरविंद घोष, रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर सभाओं में गिरफ्तार होने जा रहे साधारण सत्याग्रहियों तक सभी “वंदे मातरम्” की धुन पर एकजुट दिखाई देते थे। अंग्रेज़ों ने इसे प्रतिबंधित किया क्योंकि यह उन्हें भयभीत करता था; यह दर्शाता है कि गीत में निहित ऊर्जा किसी एक धर्म या समुदाय की नहीं, बल्कि राष्ट्रव्यापी आक्रोश की थी।
1938: जब जिन्ना ने कहा—वंदे मातरम् मुस्लिम विरोधी
1930 के दशक में मुस्लिम लीग की राजनीति सांप्रदायिक आधार पर तेज हो चुकी थी। इसी दौर में जिन्ना ने दावा किया कि वंदे मातरम् में हिंदू देवी-देवताओं के विशेष उल्लेख के कारण मुसलमान इसे स्वीकार नहीं कर सकते। उनके अनुसार यह गीत राष्ट्रवाद की आड़ में धार्मिक भावनाओं को बढ़ावा देता है। जिन्ना के तर्क का प्रभाव तत्कालीन राजनीतिक माहौल पर पड़ा। मुस्लिम लीग ने कांग्रेस से मांग की कि वह इसे राष्ट्रीय गीत के रूप में न अपनाए। यह विवाद कांग्रेस को कठिन स्थिति में ले आया—क्योंकि यह वही गीत था जो 1905 से लेकर 1930 के दशक तक स्वतंत्रता आंदोलन का आधार था।
नेहरू का ऐतिहासिक पत्र: तर्क, इतिहास और दृष्टि
6 अप्रैल 1938 को नेहरू ने जिन्ना को जो पत्र लिखा, उसमें उन्होंने स्पष्ट कहा:- वंदे मातरम् भारतीय राष्ट्रवाद के साथ 30 वर्षों से गहराई से जुड़ा है। इसके साथ न जाने कितने बलिदान और भावनाएँ जुड़ी हुई हैं। लोकप्रिय गीत आदेश से पैदा नहीं होते- उन्हें थोपे नहीं जा सकता। वे जनभावनाओं से उपजते हैं।” नेहरू ने तर्क दिया कि- तीन दशक के राष्ट्रीय आंदोलन में कभी भी इस गीत को सांप्रदायिक रूप में नहीं देखा गया। यह किसी धार्मिक श्रेष्ठता का प्रतीक नहीं, बल्कि मातृभूमि की प्रशंसा है। इसे सांप्रदायिक कहना इतिहास और आंदोलन दोनों के साथ अन्याय है। यदि किसी हिस्से से किसी समुदाय को आपत्ति है, तो भावना को समझा जाना चाहिए, पर गीत की राष्ट्रीय भूमिका को नकारना भी गलत है। नेहरू ने यह भी लिखा कि ब्रिटिश शासन खुद इस गीत से डरता था। उन्होंने उदाहरण दिया कि कितनी बार लोग सिर्फ “वंदे मातरम्” बोलने पर गिरफ्तार कर लिए जाते थे- अगर यह मात्र धार्मिक भजन होता, तो अंग्रेजों को इससे क्या खतरा होता?
संवाद का राजनीतिक संदर्भ
यह संवाद 1938 के भारत की उस मनोस्थिति को दर्शाता है जब कांग्रेस समावेशी राष्ट्रवाद का स्वरूप गढ़ रही थी… मुस्लिम लीग विभाजनकारी राजनीति की ओर बढ़ रही थी.. ब्रिटिश शासन दोनों पक्षों के बीच अविश्वास बढ़ाकर अपना लाभ देखने में लगा था. नेहरू का पत्र इतिहास की दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि उन्होंने जिस राष्ट्रवाद की परिकल्पना की- वह सांस्कृतिक समानता नहीं, बल्कि राजनीतिक और भावनात्मक एकता पर आधारित था। वंदे मातरम् पर 1938 का नेहरू–जिन्ना संवाद केवल अतीत का दस्तावेज नहीं, बल्कि भारत की बहुरंगी राष्ट्रीय पहचान का दर्पण है। यह बताता है कि राष्ट्रवाद किसी एक धर्म, समुदाय या प्रतीक से नहीं, बल्कि सामूहिक संघर्ष, भावनाओं और ऐतिहासिक अनुभवों से बनता है।







