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‘इंदिरा होतीं तो शायद…’ एक विरासत, जो अब भी धड़कती है

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Written by
Rishabh Rai

इंदिरा गांधी- भारतीय राजनीति का वह नाम, जिसकी चर्चा आज भी सिर्फ इतिहास की किताबों में नहीं, बल्कि हर उस बहस में होती है जहाँ नेतृत्व, साहस और निर्णय क्षमता की बात होती है। जयंती के मौके पर भाषणों, ट्वीटों और औपचारिक श्रद्धांजलियों के बीच एक सच्ची तस्वीर अक्सर छूट जाती है—एक ऐसी स्त्री की, जिसने सत्ता को मुकुट नहीं, जिम्मेदारी का बोझ समझकर पहना। इंदिरा को लौह-स्त्री कहा जाता है। पर किसी भी लौह-इच्छाशक्ति के पीछे एक बेहद संवेदनशील दिल छिपा होता है। शायद यही वह पक्ष है जिसे इतिहास कम, लेकिन लोगों की स्मृतियाँ ज्यादा याद रखती हैं। बड़े फैसले लेना आसान नहीं होता—और बिना “सेफ साइड” के तो बिल्कुल नहीं। इंदिरा ने फैसले लिए, विरोध झेले, आलोचनाएं सुनीं, लेकिन कभी इस डर से नहीं रुकीं कि कौन क्या कहेगा।

आज का दौर इससे बिल्कुल अलग है—जहाँ हर राजनीतिक कदम से पहले उसकी “डिजिटल प्रतिक्रिया” तौली जाती है। ऐसे समय में इंदिरा की वह छवि, जो बिना किसी सोशल मीडिया सेना के अपने निर्णयों पर खड़ी रही, और भी विराट लगती है।उनमें कमियां भी थीं, विवाद भी। इमर्जेन्सी उनकी विरासत का एक कड़वा अध्याय है। पर यह भी सच है कि भारत के सबसे निर्णायक क्षणों—युद्ध हो या भू-राजनीतिक दबाव—उन्होंने देश को कमजोर नहीं पड़ने दिया। उन्हें सत्ता से नहीं, गलत दिशा में देश को ले जाने से डर लगता था।और शायद यही डर उन्हें सबसे साहसी बनाता था।

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इंदिरा गांधी को सिर्फ उपलब्धियों, असफलताओं या नीतियों में सीमित करके नहीं समझा जा सकता। उनकी विरासत किसी दस्तावेज़ में नहीं, बल्कि उस प्रेरणा में लिखी है जो हर उस युवा को मिलती है जो कठिन रास्तों पर खड़ा होता है और मन में एक आवाज़ उठती है—डरना मत।उनका जीवन यह बताता है कि राज्य की जिम्मेदारी निभाने वाले नेताओं से इतिहास कठोर प्रश्न पूछता है, पर सच्ची याद वहीं बसती है जहाँ नेतृत्व जोखिम से भागता नहीं।

आज उनकी जयंती पर यही कहना पर्याप्त है- इंदिरा गांधी सिर्फ एक नेता नहीं थीं; वे वह विरासत हैं जो बताती है कि इंसान भी कभी-कभी पर्वत की तरह खड़ा हो जाता है… और लंबे समय तक खड़ा रहता है।

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