

बिहार का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल दरभंगा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (DMCH) आज अपने ही वजूद के लिए जूझ रहा है। यह वही संस्थान है जिसे राज्य के उत्तर बिहार की “आखिरी उम्मीद” कहा जाता था। लेकिन आज हालत यह है कि यहां मरीज इलाज से ज़्यादा अव्यवस्था और उपेक्षा से जूझ रहे हैं। अस्पताल के वार्डों में टूटी खाटें, बदबू मारती नालियां, बिजली-पानी की किल्लत, और सबसे ज़्यादा—डॉक्टरों और उपकरणों की कमी ने इसे एक “वेंटिलेटर पर पड़े सिस्टम” की तस्वीर बना दिया है।
DMCH में वेंटिलेटर मशीनें हैं, लेकिन या तो वे खराब पड़ी हैं या चालू नहीं हो पातीं। मरीजों के परिजन घंटों लाइन में लगकर ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए भटकते हैं। आईसीयू में नर्सें नहीं, वार्ड में सफाईकर्मी तक गायब रहते हैं। और ऊपर से अस्पताल प्रबंधन और सरकार के बीच ज़िम्मेदारी की फाइलें एक-दूसरे के पास धकेली जा रही हैं।
यह स्थिति केवल DMCH की नहीं, बल्कि पूरे बिहार के स्वास्थ्य तंत्र की सच्ची झलक है। पटना एम्स और पीएमसीएच को छोड़ दें तो राज्य के बाकी मेडिकल कॉलेज अस्पताल खुद बीमार हैं। गरीब जनता के लिए मुफ्त इलाज का सपना केवल पोस्टर और भाषणों में सीमित है।
सरकार हर साल करोड़ों का बजट घोषित करती है, लेकिन जमीन पर न तो सुविधाएं बढ़ती हैं और न ही मानव संसाधन। डॉक्टरों की पोस्टें खाली हैं, नर्सों की भर्ती अधर में है, और उपकरणों की देखरेख के लिए कोई जिम्मेदार नहीं।
प्रश्न यह है: जब सरकार स्वास्थ्य को प्राथमिकता बताती है, तो फिर DMCH जैसे अस्पतालों की यह दुर्दशा क्यों? आखिर कब तक गरीबों की ज़िंदगी सिस्टम की लापरवाही की कीमत चुकाती रहेगी? जरूरत है कि सरकार DMCH को सिर्फ नाम से “मेडिकल कॉलेज” नहीं बल्कि असली चिकित्सा केंद्र बनाए। डॉक्टरों की नियुक्ति, मशीनों की मरम्मत, साफ-सफाई और जवाबदेही की व्यवस्था हो। वरना जिस अस्पताल को मरीजों की सांसें चलानी थीं, वही खुद वेंटिलेटर पर चला जाएगा।









