
संपादकीय
भारतीय राजनीति में अक्सर नेताओं और जनता के बीच एक दूरी महसूस की जाती है। नेता मंचों पर भाषण देते हैं, सुरक्षा घेरे में रहते हैं और आम आदमी तक उनकी पहुँच केवल चुनावी नारों और पोस्टरों के जरिए होती है। लेकिन राहुल गांधी बार-बार इस परंपरा को तोड़ते नज़र आते हैं। कभी सड़क किनारे चप्पल सिलते एक मोची के पास बैठ जाना, कभी बिहार के उन किसानों से बात करना जो देश-दुनिया को ‘मखाना’ उपलब्ध कराते हैं, तो कभी हरियाणा के खेतों में पसीना बहाते अन्नदाता से सीधा संवाद करना—यह तस्वीरें केवल दिखावे की राजनीति नहीं लगतीं, बल्कि लोगों की नब्ज़ टटोलने का एक ईमानदार प्रयास नज़र आती हैं।राहुल गांधी का यह अंदाज़ उन्हें बाकी नेताओं से अलग खड़ा करता है। उनकी कोशिश है कि राजनीति केवल संसद और टीवी डिबेट्स तक सीमित न रहे, बल्कि वहाँ पहुँचे जहाँ असल भारत साँस लेता है। जूते बनाने वाले मोची की उँगलियों की मेहनत, मखाना उगाने वाले किसानों का संघर्ष, और गेहूँ-धान उगाने वाले अन्नदाता का दर्द ही भारत की असली कहानी है। इन्हीं कहानियों से राजनीति को दिशा मिलनी चाहिए।आज के दौर में जब सत्ता और राजनीति का चेहरा आम आदमी से लगातार दूर होता जा रहा है, राहुल गांधी का यह जनता से मिलना एक उम्मीद जगाता है। यह मानो हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र केवल सत्ता परिवर्तन का साधन नहीं, बल्कि संवेदनाओं और संवाद का पुल भी है।
हाँ, सवाल यह भी है कि इन मुलाक़ातों से आगे जाकर ठोस नीतियाँ और ज़मीनी बदलाव कैसे आएँगे। जनता चाहती है कि जो नेता उसकी झोपड़ी में बैठता है, वह संसद में उसकी आवाज़ भी उतनी ही मजबूती से उठाए। यही कसौटी है, यही असली चुनौती है।
लेकिन इतना तय है कि राहुल गांधी का यह सफर भारतीय राजनीति को एक नया पाठ पढ़ा रहा है—नेता वही जो जनता की धूल, पसीना और संघर्ष को महसूस कर सके।