
संसद की कार्यवाही एक बार फिर हंगामे और आरोप–प्रत्यारोप की भेंट चढ़ी है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा से भागती है, जबकि सत्ता पक्ष विपक्ष पर “ड्रामा” करने का आरोप लगाता है। लेकिन इन राजनीतिक नौटंकी के बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि देश के असली मुद्दों पर सरकार आखिर किस स्तर पर गंभीर है?
सरकार दावा करती है कि वह पारदर्शी, जवाबदेह और सेवा-केन्द्रित शासन दे रही है। लेकिन जब विपक्ष लगातार बेरोज़गारी, महंगाई, चुनाव सुधार, डाटा संरक्षण, संचार साथी ऐप जैसे सुरक्षा विवाद, और सरकारी योजनाओं के परिणामों पर विस्तृत बहस की मांग करता है, तो सरकार का रवैया टालमटोल वाला दिखता है। जनता यह जानना चाहती है कि सरकार इन प्रश्नों से क्यों बच रही है?
आज देश में बेरोज़गारी दर 7–8% के बीच झूल रही है। सरकारी भर्ती परीक्षाओं की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं—UKSSSC से लेकर अन्य राज्यों तक पेपर लीक का सिलसिला नहीं रुक रहा। सरकार बताती है कि उसने लाखों नौकरियां दी हैं, लेकिन आधिकारिक आंकड़े साफ नहीं बताते कि इनमें कितने पद वास्तव में भरे गए और कितनी भर्तियां ठेके पर आधारित हैं।
महंगाई पर भी जवाब की जरूरत है। खाद्य महंगाई लगातार दो अंकों में घूम रही है। रसद श्रृंखला सुधार, किसान आय दोगुनी करने और पेट्रोल–डीजल के दाम स्थिर रखने के वादों का क्या हुआ? संसद में जब विपक्ष इन सवालों को उठाता है तो जवाब के बजाय बहस को टाल दिया जाता है। क्या यह लोकतांत्रिक जवाबदेही का तरीका है?
संचार साथी ऐप पर सरकार ने पहले कहा कि हर फोन में इंस्टॉल होगा, फिर सफाई दी—“चाहें तो डिलीट कर दें।” सवाल यह है कि ऐसी संवेदनशील तकनीक को बिना सार्वजनिक समीक्षा, बिना स्वतंत्र साइबर ऑडिट और बिना डेटा सुरक्षा कानून के लागू करने की क्या मजबूरी थी?
सांसदों के निलंबन, अचानक अध्यादेशों से कानूनों में बदलाव, और संवैधानिक संस्थाओं पर दबाव के आरोपों को विपक्ष उठा रहा है। लेकिन सरकार इन्हें “राजनीतिक नौटंकी” कहकर खारिज कर देती है। लोकतंत्र तब मजबूत होता है जब सरकार सवालों से डरती नहीं, बल्कि उनका जवाब देती है। संसद किसी दल की नहीं- देश की है। विपक्ष चाहे जितना भी “ड्रामा” करे, प्रश्नों का उत्तर देना सरकार का संवैधानिक दायित्व है।







